बिल की मुख्‍य विशेषताएं

  • बिल उपभोक्ता संरक्षण एक्ट, 1986 का स्थान लेता है। बिल उपभोक्ता अधिकारों को पुष्ट करता है और खराब वस्तुओं एवं सेवाओं में दोष से संबंधित शिकायतों के निवारण के लिए व्यवस्था प्रदान करता है।
     
  • उपभोक्ताओं की शिकायतों पर फैसला करने के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों का गठन किया जाएगा। जिला और राज्य आयोग के खिलाफ अपीलों की सुनवाई राष्ट्रीय आयोग में होगी और राष्ट्रीय आयोग के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई की जाएगी।
     
  • बिल एक वर्ग (क्लास) के रूप में उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने, उनका संरक्षण करने और उन्हें लागू करने के लिए केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी का गठन करता है। अथॉरिटी वस्तुओं और सेवाओं के लिए सेफ्टी नोटिस जारी कर सकती है, रीफंड का आदेश दे सकती है, वस्तुओं को रीकॉल कर सकती है और भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ नियम बना सकती है।
     
  • अगर खराब वस्तु या दोषपूर्ण सेवा से किसी उपभोक्ता को कोई नुकसान होता है, तो वह मैन्यूफैक्चरर, विक्रेता या सर्विस प्रोवाइडर के खिलाफ उत्पाद दायित्व (प्रॉडक्ट लायबिलिटी) का दावा कर सकता है।
     
  • बिल ऐसे कॉन्ट्रैक्ट्स को अनुचित के रूप में पारिभाषित करता है जो उपभोक्ताओं के अधिकारों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। वह अनुचित और प्रतिबंधित तरीके के व्यापार को भी परिभाषित करता है।
     
  • बिल उपभोक्ता संरक्षण पर सलाह देने के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों की स्थापना करता है।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

  • बिल विवादों पर फैसला लेने के लिए अर्ध-न्यायिक निकायों के रूप में उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों का गठन करता है। वह केंद्र सरकार को इन आयोगों के सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति देता है। पर बिल यह स्पष्ट नहीं करता कि आयोग में न्यायिक सदस्य होंगे। अगर आयोग में केवल कार्यकारिणी के सदस्य होंगे तो अधिकारों के विभाजन (सेपरेशन ऑफ पावर्स) के सिद्धांत का उल्लंघन हो सकता है।
     
  • बिल केंद्र सरकार को जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों के सदस्यों को नियुक्त करने, उन्हें हटाने और उनकी सेवा की शर्तो को विनिर्दिष्ट करने की शक्ति  देता है। यानी बिल में आयोगों की संरचना की शक्ति केंद्र सरकार को दी गई है। इससे इन अर्ध-न्यायिक निकायों की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है। 
     
  • जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों को परामर्श निकायों के रूप में गठित किया जाएगा। उपभोक्ता मामलों के मंत्री राज्य और राष्ट्रीय परिषदों के प्रमुख होंगे। बिल में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि ये परिषदें किसे परामर्श देंगी। अगर वे सरकार को परामर्श देंगी तो यह अस्पष्ट है कि वे किस आधार पर सरकार को परामर्श देंगी, चूंकि सरकार द्वारा ही नीतियों को लागू किया जाता है।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

उपभोक्ता संरक्षण एक्ट, 1986 उपभोक्ताओं के अधिकारों को पुष्ट करता है और जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर शिकायतों के निवारण का प्रावधान करता है।[1]  ये शिकायतें वस्तुओं की खराबी या सेवाओं के दोषपूर्ण होने से संबंधित हो सकती हैं। एक्ट व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों को अपराध के रूप में मान्यता देता है जिसमें किसी वस्तु या सेवा की क्वालिटी या मात्रा के संबंध में झूठी सूचना देना और भ्रामक विज्ञापन शामिल हैं। 

पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस एक्ट के कार्यान्वयन में कई समस्याएं रही हैं। अनेक उपभोक्ताओं को एक्ट के अंतर्गत अपने अधिकारों की जानकारी नहीं थी।[2] हालांकि उपभोक्ता मामलों की निपटान दर उच्च थी (लगभग 90%), लेकिन उनका निपटान होने में काफी समय लगता था।[3],[4]  एक मामले को निपटाने में औसत 12 महीने लगते थे।4इसके अतिरिक्त एक्ट में उपभोक्ता और मैन्यूफैक्चरर के बीच के उन कॉन्ट्रैक्ट्स का उल्लेख नहीं था जिनकी शर्तें अनुचित होती हैं। इस संबंध में भारत के विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि एक अलग कानून लागू किया जाए और कॉन्ट्रैक्ट की अनुचित शर्तो से जुड़ा एक ड्राफ्ट बिल पेश किया।[5]

1986 के बिल को संशोधित करने के लिए 2011 में एक बिल प्रस्तुत किया गया ताकि उपभोक्ता कॉन्ट्रैक्ट की अनुचित शर्तों के खिलाफ शिकायतें और ऑनलाइन शिकायतें दर्ज करा सकें। हालांकि 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ यह बिल निरस्त हो गया।[6] 1986 के एक्ट का स्थान लेने के लिए लोकसभा में उपभोक्ता संरक्षण बिल, 2015 पेश किया गया।[7] बिल में कई नए प्रावधान प्रस्तुत किए गए जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं : (i) प्रॉडक्ट लायबिलिटी, (ii) अनुचित कॉन्ट्रैक्ट्स, और (iii) रेगुलेटरी निकाय का गठन। उपभोक्ता मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी ने इस बिल की जांच की और अप्रैल 2016 में अपनी रिपोर्ट सौंपी।[8] कमिटी ने निम्नलिखित के संबंध में अनेक सुझाव दिए : (i) प्रॉडक्ट लायबिलिटी, (ii) रेगुलेटरी निकाय (केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी) की शक्तियां और कार्य, (iii) भ्रामक विज्ञापन और ऐसे विज्ञापनों को एन्डोर्स करने वालों के लिए सजा, और (iv) जिला स्तर पर न्यायिक (एड्जुडिकेटरी) निकाय का आर्थिक क्षेत्राधिकार। 2015 के बिल का स्थान लेने के लिए जनवरी 2018 में उपभोक्ता संरक्षण बिल, 2018 पेश किया गया।  

प्रमुख विशेषताएं

उपभोक्ता शिकायतें

  • बिल निम्नलिखित प्रकार के मामलों पर शिकायतों की सुनवाई के लिए उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (उपभोक्ता अदालतों) का गठन करता है : (i) वस्तुओं की खराबी या सेवाओं का दोषपूर्ण होना, (ii) अनुचित या प्रतिबंधित तरीके के व्यापार, (iii) अत्यधिक कीमतें, (iv) ऐसी वस्तुओं को जानबूझकर बेचना या सेवाएं प्रदान करना जो सुरक्षा मानदंडों को पूरा नहीं करतीं और (iv) प्रॉडक्ट लायबिलिटी। ऐसी शिकायतों को इलेक्ट्रॉनिक तरीके से और उन स्थानों से दायर किया जा सकता है जहां शिकायतकर्ता रहता या काम करता है।
     
  • इन आयोगों को जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर गठित किया जाएगा और उनका आर्थिक क्षेत्राधिकार क्रमशः एक करोड़ रुपए, एक करोड़ रुपए से 10 करोड़ रुपए और 10 करोड़ रुपए से अधिक होगा। अनुचित कॉन्ट्रैक्ट्स के संबंध में राज्य आयोग उन शिकायतों की सुनवाई करेगा जिनका मूल्य 10 करोड़ रुपए तक होगा, और राष्ट्रीय आयोग में उनसे अधिक के मूल्य की शिकायतों की सुनवाई की जाएगी। ये आयोग ऐसे कॉन्ट्रैक्ट्स की अनुचित शर्तों को अमान्य घोषित कर सकते हैं।
     
  • जिला आयोगों के खिलाफ अपील की सुनवाई राज्य आयोग द्वारा की जाएगी और राज्य आयोगों के खिलाफ अपील की सुनवाई राष्ट्रीय आयोग द्वारा। राष्ट्रीय आयोग के खिलाफ अपील की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में होगी।
     
  • अगर किसी शिकायत में कमोडिटी के विश्लेषण या परीक्षण की जरूरत न हो तो आयोग ऐसी किसी शिकायत का निपटान तीन महीने के भीतर करने का प्रयास करेगा। अगर विश्लेषण या परीक्षण की जरूरत होगी तो शिकायत का निपटारा पांच महीने की अवधि के भीतर किया जाएगा।
     
  • जिला आयोगों में एक प्रेज़िडेंट और कम से कम दो सदस्य होंगे। राज्य और राष्ट्रीय आयोगों में एक प्रेज़िडेंट और कम से कम चार सदस्य होंगे। इन आयोगों के प्रेज़िडेंट और सदस्यों की योग्यता (क्वालिफिकेशन), कार्य अवधि और नियुक्ति एवं बर्खास्तगी को केंद्र सरकार द्वारा एक अधिसूचना के जरिए विनिर्दिष्ट किया जाएगा।
     
  • बिल में जिला, राज्य और राष्ट्रीय आयोगों से जुड़ी मध्यस्थता इकाई का प्रावधान है। अगर सभी पक्ष सहमत हों तो आयोग मध्यस्थता की पेशकश कर सकता है।

बिल के अंतर्गत स्थापित अन्य निकाय

  • केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी : बिल एक वर्ग (क्लास) के रूप में उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने, उनका संरक्षण करने और उन्हें लागू करने के लिए केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी (सीसीपीए) का गठन करता है। इसका नेतृत्व मुख्य आयुक्त करेंगे और इसमें अन्य आयुक्त शामिल होंगे। इस अथॉरिटी में एक अन्वेषण शाखा होगी जिसका नेतृत्व महानिदेशक द्वारा किया जाएगा। यह शाखा निम्नलिखित कार्य कर सकती है : (i) सेफ्टी नोटिस जारी करना, (ii) वस्तुओं को रीकॉल करने के आदेश देना, अनुचित और प्रतिबंधित व्यापार को रोकना, (iii) चुकाए गए खरीद मूल्य को लौटाना, और (iv) झूठे और भ्रामक विज्ञापनों के लिए दंड लगाना। अन्वेषण शाखा उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों में शिकायत भी दर्ज कर सकती है।
     
  • उपभोक्ता संरक्षण परिषद : बिल जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर परामर्श निकाय के रूप में उपभोक्ता संरक्षण परिषदों (सीपीसीज़) का गठन करता है। परिषदें उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने और उनके संरक्षण के लिए परामर्श देंगी। बिल के अंतर्गत केंद्रीय और राज्य परिषदों का नेतृत्व क्रमशः केंद्रीय और राज्य स्तर के उपभोक्ता मामलों के मंत्री द्वारा किया जाएगा। जिला परिषद का नेतृत्व जिला कलेक्टर द्वारा किया जाएगा।

प्रॉडक्ट लायबिलिटी

  • अगर किसी उत्पाद में कोई खराबी या सेवा में कोई दोष पाया जाता है तो बिल उपभोक्ता को मैन्यूफैक्चरर, विक्रेता या सर्विस प्रोवाइडर के खिलाफ प्रॉडक्ट लायबिलिटी का दावा करने की अनुमति देता है। मुआवजे का दावा किसी भी नुकसान के लिए किया जा सकता है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं : (i) संपत्ति का नुकसान, (ii) व्यक्तिगत क्षति, बीमारी या मृत्यु, और (iii) इन परिस्थितियों के साथ मानसिक कष्ट या भावनात्मक नुकसान।

अनुचित कॉन्ट्रैक्ट्स

  • एक कॉन्ट्रैक्ट अनुचित है, अगर इससे उपभोक्ता के अधिकारों में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं : (i) बहुत अधिक सिक्योरिटी डिपॉजिट की मांग, (ii) कॉन्ट्रैक्ट तोड़ने पर ऐसा दंड जो कॉन्ट्रैक्ट तोड़ने से होने वाले नुकसान के अनुपात में न हो, (iii) अगर उपभोक्ता किसी कर्ज का रीपेमेंट पहले करना चाहे तो इसे लेने से इनकार करना, (iv) बिना किसी उचित कारण के कॉन्ट्रैक्ट को समाप्त करना, (v) बिना उपभोक्ता की सहमति के कॉन्ट्रैक्ट को थर्ड पार्टी को ट्रांसफर करना, जिससे उपभोक्ता का नुकसान होता हो, या (vi) ऐसा अनुचित शुल्क या बाध्यता लगाना, जिससे उपभोक्ता का हित प्रभावित होता हो।
     
  • राज्य एवं राष्ट्रीय आयोग निर्धारित कर सकते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें अनुचित हैं और ऐसी शर्तों को अमान्य घोषित कर सकते हैं।

अनुचित और प्रतिबंधित तरीके का व्यापार

  • व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों में निम्नलिखित शामिल हैं : (i) किसी वस्तु या सेवा की क्वालिटी या स्टैंडर्ड के संबंध में झूठा बयान देना, (ii) मानकों का पालन न करने वाली वस्तुओं को बेचना, (iii) नकली वस्तुएं बनाना, (iv) बेची जाने वाली वस्तु या सेवा की रसीद न देना, (v) 30 दिनों के भीतर वस्तुओं या सेवाओं को वापस लेने या रीफंड करने से इनकार करना, और (vi) उपभोक्ता की व्यक्तिगत जानकारी किसी दूसरे व्यक्ति को देना।
     
  • प्रतिबंधित तरीके का व्यापार वह है जिसमें उपभोक्ताओं पर अनुचित कीमत या प्रतिबंध थोपे जाएं, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं: (i) आपूर्ति में देर करना जिसके परिणामस्वरूप कीमत बढ़ जाए. और (ii) किन्हीं वस्तुओं या सेवाओं को हासिल करने के लिए किन्हीं दूसरी वस्तुओं या सेवाओं को खरीदने की शर्त रखना।
     
  • सीसीपीए अनुचित और प्रतिबंधित तरीके के व्यापार को रोकने या बंद करने के लिए कदम उठा सकती है। जिला, राज्य या राष्ट्रीय आयोग अनुचित और प्रतिबंधित तरीके के व्यापार को बंद करने का आदेश दे सकते हैं।

दंड

  • अगर कोई व्यक्ति जिला, राज्य या राष्ट्रीय आयोगों के आदेशों का पालन नहीं करता तो उसे तीन वर्ष तक के कारावास की सजा हो सकती है या उस पर कम से कम 25,000 रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है जिसे एक लाख रुपए तक बढ़ाया जा सकता है या उसे दोनों सजा भुगतनी पड़ सकती है।
     
  • अगर कोई व्यक्ति सीसीपीए द्वारा जारी आदेश का पालन नहीं करता तो उसे छह महीने के कारावास की सजा हो सकती है या उस पर 20 लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है या उसे दोनों सजा भुगतनी पड़ सकती है।
     
  • झूठे और भ्रामक विज्ञापनों के लिए मैन्यूफैक्चरर या एंडोर्सर पर 10 लाख रुपए तक का दंड लगाया जा सकता है। इसके बाद अपराध करने पर यह जुर्माना बढ़कर 50 लाख रुपए तक हो सकता है। मैन्यूफैक्चरर को अधिकतम दो वर्षों का कारावास भी हो सकता है और इसके बाद हर बार अपराध करने पर यह सजा पांच वर्षों तक बढ़ाई जा सकती है।
     
  • सीसीपीए भ्रामक विज्ञापन के एंडोर्सर को एक वर्ष तक की अवधि के लिए किसी विशेष उत्पाद या सेवा को एंडोर्स करने से प्रतिबंधित भी कर सकती है। हर बार अपराध करने पर प्रतिबंध की अवधि तीन वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है। ऐसे कुछ अपवाद भी हैं जब एंडोर्सर को ऐसे किसी दंड के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
     
  • सीसीपीए मिलावटी उत्पादों की मैन्यूफैक्चिंग, बिक्री, स्टोरिंग, वितरण या आयात के लिए भी दंड लगा सकती है। ये दंड निम्नलिखित हैं : (i) अगर उपभोक्ता को क्षति नहीं हुई है तो दंड एक लाख रुपए तक का जुर्माना और छह महीने तक का कारावास हो सकता है, (ii) अगर क्षति पहुंची है तो दंड तीन लाख रुपए तक का जुर्माना और एक वर्ष तक का कारावास हो सकता है, (iii) अगर गंभीर चोट लगी है तो दंड पांच लाख रुपए तक का जुर्माना और सात वर्ष तक का कारावास हो सकता है, और (iv) मृत्यु की स्थिति में दंड दस लाख रुपए या उससे अधिक का जुर्माना और कम से कम सात वर्ष का कारावास हो सकता है जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
     
  • सीसीपीए नकली वस्तुओं की मैन्यूफैक्चिंग, बिक्री, स्टोरिंग, वितरण या आयात के लिए भी दंड लगा सकती है। ये दंड निम्नलिखित हैं : (i) अगर क्षति पहुंची है तो दंड तीन लाख रुपए तक का जुर्माना और एक वर्ष तक का कारावास हो सकता है, (ii) अगर गंभीर चोट लगी है तो दंड पांच लाख तक का जुर्माना और सात वर्ष तक का कारावास हो सकता है, और (iii) मृत्यु की स्थिति में दंड दस लाख रुपए या उससे अधिक का जुर्माना और कम से कम सात वर्ष का कारावास हो सकता है जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।

भाग ख:  प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों की संरचना

बिल उपभोक्ता विवादों में न्यायिक निर्णय लेने के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों (उपभोक्ता अदालतों) का गठन करता है जोकि अर्ध न्यायिक निकाय होंगे। हम इन आयोगों की संरचना और इसके सदस्यों की नियुक्ति के तरीके से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।

आयोगों की संरचना सेपरेशन ऑफ पावर्स के सिद्धांत का उल्लंघन कर सकती है

जिला, राज्य और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग विभिन्न मूल्यों वाली खराब वस्तुओं और दोषपूर्ण सेवाओं से संबंधित शिकायतों पर फैसले लेंगे। उन्हें सिविल अदालत के समान शक्तियां दी गई हैं। राज्य और राष्ट्रीय आयोग क्रमशः जिला और राज्य आयोगों के फैसलों पर अपीलीय निकायों के रूप में कार्य करेंगे। राष्ट्रीय आयोग के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जाएगी। इसलिए ये आयोग अर्ध न्यायिक निकाय हैं जबकि राष्ट्रीय आयोग उच्च न्यायालय के समान है।

बिल स्पष्ट करता है कि आयोगों का नेतृत्व प्रेज़िडेंट द्वारा किया जाएगा और इसके अन्य सदस्य भी होंगे। हालांकि बिल केंद्र सरकार को प्रेज़िडेंट और अन्य सदस्यों की क्वालिफिकेशन तय करने की शक्ति देता है। विशेष रूप से, बिल यह स्पष्ट नहीं करता कि प्रेज़िडेंट या सदस्यों की न्यूनतम न्यायिक क्वालिफिकेशन होनी चाहिए। यह मौजूदा उपभोक्ता संरक्षण एक्ट, 1986 के विपरीत है जो कहता है कि जिला आयोग का नेतृत्व ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाएगा जो जिला न्यायाधीश होने के योग्य हो। इसी प्रकार राज्य और राष्ट्रीय आयोगों की अध्यक्षता ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाएगी जो क्रमशः उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का जज होने योग्य हो। 1986 का एक्ट सदस्यों की न्यूनतम क्वालिफिकेशन भी स्पष्ट करता है। इससे पूर्व 2015 के बिल में भी कहा गया था कि राज्य और राष्ट्रीय आयोगों का नेतृत्व न्यायिक सदस्यों द्वारा किया जाएगा, हालांकि बिल में इस बात की अनुमति भी दी गई थी कि जिला न्यायाधीश के अतिरिक्त जिलाधीश भी जिला आयोग की अध्यक्षता कर सकते हैं।

अगर आयोगों में केवल गैर न्यायिक सदस्य होंगे तो यह सेपरेशन ऑफ पावर्स के सिद्धांत का उल्लंघन होगा। यह कहा जा सकता है कि नियमों (रूल्स) के जरिए क्वालिफिकेशन तय करने की शक्ति देना, सरकार को अत्यधिक शक्तियां प्रदान करना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि नियमों की विषयसूची (कंटेंट्स ऑफ रूल्स) में मानक, मानदंड या सिद्धांत की अनुपस्थिति में कार्यकारिणी (एग्जीक्यूटिव) को प्रदान की गई शक्तियां वैध तरीके से दी जाने वाली शक्तियों की स्वीकृत सीमा से परे जा सकती है।[9]

आयोगों की नियुक्ति में कार्यकारिणी की भागीदारी न्यायिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकती है

बिल केंद्र सरकार को अनुमति देता है कि वह आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति करने के तरीके को अधिसूचित करे। ऐसी कोई शर्त नहीं है कि इस चयन में उच्च स्तरीय न्यायधीशों को शामिल किया जाए। कहा जा सकता है कि कार्यकारिणी को आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति करने की अनुमति देने से आयोगों की स्वतंत्र कार्य पद्धति प्रभावित हो सकती है। अपीलीय ट्रिब्यूनलों, जैसे नेशनल टैक्स ट्रिब्यूनल, के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि उनकी शक्तियां और कार्य उच्च न्यायालयों के समान हैं इसलिए उनकी नियुक्तियों और कार्यकाल से संबंधित मामलों को कार्यकारिणी की भागीदारी से मुक्त रखा जाना चाहिए।[10]  बिल सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश के अनुरूप नहीं है। 

1986 के एक्ट में सिलेक्शन कमिटियों के प्रावधान हैं जो इन आयोगों के सदस्यों की नियुक्तियां करेंगी। चयन का यह तरीका 2015 के बिल में भी है। इन सिलेक्शन कमिटियों की अध्यक्षता किसी न्यायिक सदस्य द्वारा की जाएगी। 2018 का बिल इन सिलेक्शन कमिटियों का गठन नहीं करता और आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति का काम केंद्र सरकार पर छोड़ता है। तालिका 1 में मौजूदा और प्रस्तावित कानून के अंतर्गत इन सिलेक्शन कमिटियों की संरचना के विषय में बताया गया है।

तालिका 1 : 1986 के एक्ट, 2015 और 2018 के बिल्स में सिलेक्शन कमिटियां

 

1986 का एक्ट

2015 का बिल

2018 का बिल

राष्ट्रीय आयोग

·    सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और केंद्र सरकार के दो अधिकारी शामिल

·    आयोग के प्रमुख की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से

·    सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और केंद्र सरकार के दो अधिकारी शामिल

·    आयोग के प्रमुख की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से

·    सिलेक्शन कमिटी का प्रावधान नहीं। केंद्र सरकार अधिसूचना के जरिए नियुक्ति करेगी

राज्य आयोग

·    उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और राज्य सरकार के दो अधिकारी शामिल

·    आयोग के प्रमुख की नियुक्ति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से

·    उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और राज्य सरकार के दो अधिकारी शामिल

·    आयोग के प्रमुख की नियुक्ति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से

·    सिलेक्शन कमिटी का प्रावधान नहीं। केंद्र सरकार अधिसूचना के जरिए नियुक्ति करेगी

जिला आयोग

·    उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और राज्य सरकार के दो अधिकारी शामिल

·    सिलेक्शन कमिटी का प्रावधान नहीं। राज्य सरकार राज्य लोक सेवा आयोग की सलाह से नियुक्ति करेगी

·    सिलेक्शन कमिटी का प्रावधान नहीं। केंद्र सरकार अधिसूचना के जरिए नियुक्ति करेगी

Sources: The Consumer Protection Act, 1986; The Consumer Protection Bill, 2015; The Consumer Protection Bill, 2018; PRS.

उपभोक्ता संरक्षण परिषदों की संरचना और भूमिका

बिल परामर्श निकाय के तौर पर जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों (सीपीसीज़) को स्थापित करता है। ये परिषदें उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने और उनके संरक्षण के संबंध में परामर्श देंगी। बिल के अंतर्गत केंद्रीय परिषद और राज्य परिषद का नेतृत्व क्रमशः केंद्र और राज्य स्तर के उपभोक्ता मामलों के मंत्री द्वारा किया जाएगा। जिला परिषद का नेतृत्व जिला कलेक्टर द्वारा किया जाएगा।

बिल के अनुसार, इन निकायों को उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने और उनके संरक्षण के संबंध में परामर्श देना चाहिए। यह किसी ऐसे निकाय के लिए असामान्य बात है, जिसका नेतृत्व मंत्री या जिला कलेक्टर (जोकि नीतियों को लागू करने वाली अथॉरिटीज़ हैं) द्वारा किया जा रहा हो, कि वह परामर्श देने की भूमिका में हो। इसके अतिरिक्त बिल यह स्पष्ट नहीं करता कि सीपीसीज़ किसे सलाह देंगी।

1986 के एक्ट में ऐसी परिषदों का प्रावधान है लेकिन उनका कार्य उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देना और उनका संरक्षण करना है (जोकि परामर्श देने वाली भूमिका नहीं है)। बिल ने यह कर्तव्य केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी में निहित किया है।

स्टैंडिंग कमिटी के अन्य सुझाव नहीं माने गए

उपभोक्ता संरक्षण बिल, 2015 की जांच करने वाली स्टैंडिंग कमिटी ने अनेक सुझाव दिए थे। हालांकि अनेक सुझावों को 2018 के बिल में शामिल किया गया, निम्नलिखित सुझावों को शामिल नहीं किया गया।

  • प्राप्त वस्तुओं या सेवाओं की क्वालिटी के आधार पर किसी कॉन्ट्रैक्ट को समाप्त करने का अधिकार बिल में रेखांकित उपभोक्ता अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए। इसका यह तर्क दिया गया कि 1930 के सेल्स ऑफ गुड्स एक्ट के अंतर्गत एक खरीदार को किसी कॉन्ट्रैक्ट को समाप्त करने के कुछ अधिकार दिए गए हैं और बिल में उपभोक्ताओं के लिए ऐसे प्रावधान होने चाहिए।
     
  • मामलों का शीघ्र निपटान हो, इसके लिए 20 लाख रुपए तक के मूल्य वाले मुआवजों के मामलों में वकीलों को शामिल नहीं किया जाना चाहिए। कमिटी ने मामलों के निपटान में अत्यधिक विलंब के लिए वकीलों को जिम्मेदार ठहराया और परिणामस्वरूप कुछ मामलों में वकीलों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया।
     
  • स्टैंडिंग कमिटी ने कहा कि उपभोक्ता आयोग उन सेवाओं से संबंधित शिकायतों को मंजूर नहीं करते, जिन पर विशेष कानून लागू होते हैं। उसने सुझाव दिया कि यह स्पष्ट करने के लिए एक प्रावधान जोड़ा जा सकता है कि प्रस्तावित बिल किसी भी ऐसे मामले पर लागू होगा, जोकि विशेष कानून के अंतर्गत आता है, जब तक कि विशेष कानून यह न कहता हो कि उस कानून के अंतर्गत प्रस्तावित बिल लागू न होता हो।
     
  • एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) जिस एडवर्टाइजिंग कोड का पालन करती है, उसे कानूनी समर्थन दिया जाना चाहिए। कमिटी ने सुझाव दिया था कि बिल में एक ऐसा प्रावधान शामिल किया जा सकता है जिससे भ्रामक विज्ञापन देने वाला संशोधित विज्ञापन को जारी करने के लिए मजबूर हो।

परिशिष्ट : 1986 के एक्ट और 2018 के बिल के बीच तुलना

बिल प्रॉडक्ट लायबिलिटी और अनुचित कॉन्ट्रैक्ट्स के प्रावधान पेश़ करता है। वह सीसीपीए नामक रेगुलेटर की स्थापना और उपभोक्ताओं की शिकायतों के निपटान हेतु मध्यस्थता की अनुमति देता है। तालिका 2 में 1986 के एक्ट और 2018 के बिल के बीच तुलना की गई है।

तालिका 2 : उपभोक्ता संरक्षण एक्ट, 1986 और उपभोक्ता संरक्षण बिल, 2018 के बीच तुलना

प्रावधान

1986 का एक्ट

2018 का बिल

कानून का दायरा

  • विचार के लिए सभी वस्तुएं और सेवाएं
  • मुफ्त और व्यक्तिगत सेवाएं शामिल नहीं
  • विचार के लिए टेलीकॉम और आवास निर्माण तथा सभी प्रकार के लेनदेन (ऑनलाइन, टेलीशॉपिंग इत्यादि) सहित सभी वस्तुएं और सेवाएं
  • मुफ्त और व्यक्तिगत सेवाएं शामिल नहीं

व्यापार के अनुचित तौर-तरीके *

  • छह प्रकार के तौर-तरीके शामिल जैसे झूठा प्रदर्शन, भ्रामक विज्ञापन
  • सूची में तीन प्रकार के तरीके शामिल जैसे: (i) बिल या रसीद न देना, (ii) 30 दिनों के भीतर वस्तु वापस लेने से इनकार करना, और (iii) विश्वास से दी गई व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा, अगर वह कानून या सार्वजनिक हित के लिए अपेक्षित नहीं है
  • प्रतियोगिताओं/ लॉटरियों के बारे में अधिसूचना जारी की जा सकती है कि वे अनुचित व्यापार के तौर-तरीकों के दायरे में नहीं आतीं

प्रॉडक्ट लायबिलिटी

  • कोई प्रावधान नहीं
  • मैन्यूफैक्चरर, सर्विस प्रोवाइडर और विक्रेता के खिलाफ प्रॉडक्ट लायबिलिटी का दावा किया जा सकता है
  • बिल में स्पष्ट शर्तों में से किसी एक को साबित करके मुआवजा हासिल

अनुचित कॉन्ट्रैक्ट

  • कोई प्रावधान नहीं
  • ऐसे कॉन्ट्रैक्ट के रूप में परिभाषित जो उपभोक्ता अधिकारों में महत्वपूर्ण बदलाव करते हैं
  • छह स्थितियां जिन्हें अनुचित कहा जा सकता है

केंद्रीय संरक्षण परिषद (सीपीसीज़)

  • सीपीसीज़ उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा और संरक्षण देती हैं
  • सीपीसीज़ जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर गठित
  • उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा और संरक्षण देने के लिए सीपीसीज़ को परामर्श निकाय बनाता है
  • जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर सीपीसीज़ की स्थापना

रेगुलेटर

  • कोई प्रावधान नहीं
  • वर्ग के रूप में उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा, उनका संरक्षण और उनके कार्यान्वयन हेतु केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी का गठन
  • सीसीपीए निम्न कार्य कर सकती है: (i) सेफ्टी नोटिस जारी करना, (ii) वस्तुओं को रीकॉल करने के आदेश देना, अनुचित व्यापार को रोकना और खरीद मूल्य को लौटाना, और (iii) झूठे एवं भ्रामक विज्ञापनों हेतु दंड देना

आयोगों का आर्थिक क्षेत्राधिकार

  • जिला:  20 लाख रुपए तक
  • राज्य:  20 लाख रुपए से एक करोड़ रुपए के बीच
  • राष्ट्रीय:  एक करोड़ रुपए से अधिक
  • जिला:  एक करोड़ रुपए तक
  • राज्य:  एक करोड़ रुपए से 10 करोड़ रुपए के बीच
  • राष्ट्रीय:  10 करोड़ रुपए से अधिक

आयोगों की संरचना

  • जिलामौजूदा या पूर्व जिला न्यायाधीश द्वारा नेतृत्व और दो सदस्य
  • राज्यउच्च न्यायालय के मौजूदा या पूर्व न्यायाधीश द्वारा नेतृत्व और न्यूनतम दो सदस्य
  • राष्ट्रीयसर्वोच्च न्यायालय के मौजूदा या पूर्व न्यायाधीश द्वारा नेतृत्व और न्यूनतम चार सदस्य
  • जिलाप्रेज़िडेंट द्वारा नेतृत्व और न्यूनतम दो सदस्य
  • राज्यप्रेज़िडेंट द्वारा नेतृत्व और न्यूनतम चार सदस्य
  • राष्ट्रीयप्रेज़िडेंट द्वारा नेतृत्व और न्यूनतम चार सदस्य

नियुक्ति

  • आयोग के सदस्यों पर सिलेक्शन कमिटी (न्यायिक सदस्य और अन्य अधिकारी शामिल) सुझाव देगी
  • सिलेक्शन कमिटी का प्रावधान नहीं। केंद्र द्वारा अधिसूचना के जरिए नियुक्ति

वैकल्पिक विवाद निवारण व्यवस्था

  • कोई प्रावधान नहीं
  • मीडिएशन सेल्स जिला, राज्य और राष्ट्रीय आयोगों से संबद्ध होंगे

दंड

  • आयोग के आदेशों का पालन न करने पर एक महीने से तीन वर्ष तक का कारावास या 2,000 से 10,000 रुपए तक का जुर्माना, या दोनों का दंड
  • आयोग के आदेशों का पालन न करने पर तीन वर्ष तक का कारावास या न्यूनतम 25,000 से एक लाख तक का जुर्माना, या दोनों का दंड

ई-कॉमर्स

  • कोई प्रावधान नहीं
  • डायरेक्ट सेलिंग, ई-कॉमर्स और इलेक्ट्रॉनिक सर्विस प्रोवाइडर की परिभाषा
  • केंद्र सरकार ई-कॉमर्स और डायरेक्ट सेलिंग में अनुचित व्यापार को रोकने के लिए नियम बना सकती है

Note: *Defined as deceptive practices to promote the sale, use or supply of a good or service.

Sources: Consumer Protection Act, 1986; Consumer Protection Bill, 2018; PRS.

 

[1]The Consumer Protection Act, 1986, http://www.ncdrc.nic.in/1_1.html.

[2]Paragraph 1.14, The Consumer Protection (Amendment) Bill, 2011, 26th Report, Standing Committee on Food, Consumer Affairs and Public Distribution, December, 2012, http://www.prsindia.org/uploads/media/Consumer/SC%20Report-Consumer%20Protection%20(A)%20Bill,%202011.pdf.  

[3].  “Total Number of Consumer Complaints Filed/ Disposed since inception Under Consumer Protection Law, National Consumer Dispute Redressal Commission, as on March 12, 2018.

[4].  “Implementation of the Consumer Protection Act and Rules, Report no. 14 of 2006, Comptroller and Auditor General of India.

[5]199th Report of the Law Commission of India: Unfair (Procedural and Substantive) Terms in Contract, August 2006.

[6]The Consumer Protection (Amendment) Bill, 2011, Ministry of Consumer Affairs, Food and Public Distribution.

[7]The Consumer Protection Bill, 2015, Ministry of Consumer Affairs, Food and Public Distribution.

[8]Report no. 9 on The Consumer Protection Bill, 2015, Standing Committee on Consumer Affairs, Food and Public Distribution, Lok Sabha, April 26, 2016, http://www.prsindia.org/uploads/media/Consumer/SCR-%20Consumer%20Protection.pdf.

[9]Hamdard Dawakhana and Anr., v. The Union of India (UOI) and Ors., AIR1960SC554; Confederation of Indian Alcoholic Beverage Companies and Ors. vs. The State of Bihar and Ors., 2016(4) PLJR369.

[10]Madras Bar Association v. Union of India, AIR 2014 SC 1571.

 

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