स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट का सारांश

इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता (दूसरा संशोधन) बिल, 2019

  • वित्त संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (चेयर: जयंत सिन्हा) ने 4 मार्च, 2020 को इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता (दूसरा संशोधन) बिल, 2019 पर अपनी रिपोर्ट सौंपी। बिल इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता, 2016 में संशोधन करता है। संहिता कंपनियों और व्यक्तियों के बीच इनसॉल्वेंसी को रिज़ॉल्व करने के लिए एक समयबद्ध प्रक्रिया प्रदान करती है। कमिटी के मुख्य निष्कर्ष और सुझाव निम्नलिखित हैं:
     
  • महत्वपूर्ण वस्तुओं और सेवाओं की सप्लाई रोकी नहीं जाएगी: बिल में कहा गया है कि रेज़ोल्यूशन प्रोफेशनल्स द्वारा कंपनी के लिए महत्वपूर्ण समझी जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं को स्थगन अवधि के दौरान नहीं रोका जा सकता। कमिटी ने कहा कि इस प्रावधान का उद्देश्य आईबीसी प्रक्रिया को सहज करना है ताकि कंपनी को पुनर्जीवित किया जा सके। हालांकि ऐसा करने के लिए सप्लायर्स पर बहुत अधिक प्रतिबंधक शर्तें नहीं लगाई जा सकतीं। यह कहा गया कि ओवर लेजिसलेशन (यानी जहां कानून नहीं होने चाहिए, वहां भी कानून बनाना) से बचा जाना चाहिए और डेलिगेटेड लेजिसलेशन जैसे कि नियमों का पालन किया जाना चाहिए ताकि स्टेकहोल्डर्स की जरूरतों और चिंताओं के बीच संतुलन बनाया जा सके। कमिटी ने सुझाव दिया कि इस प्रावधान को बिल से हटाया जाना चाहिए।
     
  • यह भी कहा गया कि सप्लायर्स के पास संसाधनों और क्षमता की सीमित उपलब्धता के कारण इन्हें अर्थव्यवस्था के हित में इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है, न सिर्फ देनदार के सर्वाइवल के लिए ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। कमिटी ने सुझाव दिया कि बाजार की ताकतों की समस्याओं को हल किया जाना चाहिए जैसे कि सप्लायर देनदार को सप्लाई करना चाहता है अथवा नहीं।   
     
  • पहले के अपराधों के लिए माफी (इम्युनिटी): कमिटी ने कहा कि पूर्व अपराधों के लिए कंपनी को इम्युनिटी देने से रेज़ोल्यूशन एप्लीकेंट(केंट्स) की स्थिति सुरक्षित रखने की कोशिश की गई है। यह प्रावधान जरूरी है ताकि उन्हें यूनिट को पुनर्जीवित करने का निष्पक्ष मौका मिल सके। वरना यूनिट लिक्विडेशन में चली जाएगी जोकि अर्थव्यवस्था के लिए लाभप्रद नहीं होगा। कमिटी ने कहा कि एप्लीकेंट्स पर अतिरिक्त देनदारी थोपे बिना, पुनर्जीवन या रेज़ोल्यूशन के लिए यह घेराबंदी जरूरी है।
     
  • आईबीसी के अंतर्गत रेज़ोल्यूशन: कमिटी ने कहा कि अब तक आईबीसी के अंतर्गत 8.4 लाख करोड़ रुपए के दावे फाइल किए गए हैं (इसमें ऐसे निस्तारित मामले शामिल हैं जिन्हें आईबीसी के अंतर्गत दाखिल नहीं किया गया है)। वसूली योग्य राशि 3.57 लाख करोड़ रुपए है यानी दावों का 43%। रेज़ोल्यूशन के लिए औसत 394 दिन लगते हैं। यह कहा गया कि निकट भविष्य में रिकवरी का प्रतिशत बढ़ने वाला है और रेज़ोल्यूशन में लगने वाला समय आईबीसी के अंतर्गत निर्धारित समय अवधि के अनुरूप होना चाहिए।
     
  • रेज़ोल्यूशन में तेजी: कमिटी ने सुझाव दिया कि मामलों के निस्तारण और रेज़ोल्यूशन में तेजी लाने के लिए एनसीएलटी की न्यायपीठों की संख्या बढ़ाई जाए और ई-कोर्ट्स को स्थापित किया जाए।
     
  • एनपीएज़ का रेज़ोल्यूशन: कमिटी ने कहा कि बैंकों में नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीएज़) की बढ़ोतरी को रोकने में आईबीसी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उसने कहा कि बेहतर परिणाम हासिल करने के लिए आईबीसी के दायरे में प्रभावी उपाय किए गए हैं।
     
  • सीमा पारीय इनसॉल्वेंसी: कमिटी ने कहा कि इनसॉल्वेंसी के सीमा पारीय मामलों के कारण लेनदारों के लिए रिकवरी अनिश्चित हुई। ऐसे मामलों में देनदार या उनके लेनदारों के कुछ एसेट्स भारत के बाहर स्थिति हैं। कमिटी ने कहा कि ऐसे मामलों से निपटने के लिए एक ड्राफ्ट बिल पर काम चल रहा है। उसने सुझाव दिया कि आईबीसी को और मजबूती देने के लिए जल्द से जल्द इस बिल को पेश किया जाना चाहिए।
     
  • आईबीसी को मजबूती: कमिटी ने सुझाव दिया कि भारतीय इनसॉल्वेंसी फ्रेमवर्क की तुलना दूसरे न्यायक्षेत्रों से की जानी चाहिए ताकि परिणामों का मूल्यांकन और रेज़ोल्यूशन की कार्यकुशलता का विश्लेषण किया जा सके। प्रयोगसिद्ध प्रमाण और बेंचमार्किंग विश्लेषण के जरिए उन अंतरालों को चिन्हित किया जाना चाहिए जिन्हें लक्षित किया जाना है और यह भी कि, किस हद तक भारतीय कानूनों में संशोधन किया जा सकता है।
     
  • कमिटी ने कहा कि इन अंतरालों को भरने के लिए लेजिसलेशन, रूल मेकिंग, एड्जूडिकेशन और अनौपचारिक नियमों की एक दूसरे पर निर्भर करने वाली भूमिका का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। इस बारे में काफी अस्पष्टता है कि किस नीति के जरिए इस मुद्दे को लक्षित किया जा सकता है। कमिटी ने सुझाव दिया कि आगे कोई कानून लाना हो तो पहले ऐसा विश्लेषण किया जाना चाहिए।
     
  • असंतोष के नोट्स: तीन सांसदों ने बिल के उस प्रावधान पर असंतोष जाहिर किया जोकि आईबीसी प्रक्रिया को शुरू करने के लिए घर खरीदारों के लिए न्यूनतम सीमा निर्दिष्ट करता है। संहिता लेनदारों को इस प्रक्रिया को शुरू करने की अनुमति देती है, अगर डीफॉल्ट की राशि कम से कम एक लाख रुपए हो। बिल कहता है कि घर खरीदारों के मामले में संयुक्त आवेदन को कम से कम 100 या उनके 10% सदस्यों (इनमें से जो कम हो) द्वारा दायर किया जाना चाहिए। राजीव चंद्रशेखर और मनीष तिवारी ने कहा कि यह प्रावधान घर खरीदारों से भेदभाव करता है और संविधान के अंतर्गत उनके समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। टी. के. रंगराजन ने कहा कि घर खरीदारों के लिए अतिरिक्त सीमा निर्धारित करने से उन्हें निष्पक्ष और एक समान मौका नहीं मिलेगा और पब्लिक डेटा उपलब्ध न होने के कारण उनका मिलना लगभग असंभव है।

 

 

 

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